जैन तत्व दर्शन में गुणस्थान का बहुत बड़ा स्थान है अतः गुणस्थान क्या है इसका संक्षिप्त विवेचन यहाँ पर करना है। जैन सिद्धान्त दीपिका में आचार्य श्री तुलसी ने कहा है कि “आत्मनः क्रमिक विशुद्धि गुणस्थानम्” अर्थात् कर्मों के क्षय, क्षयोपशम और उपशम से पैदा होने वाले पवित्र आत्म-गुणों के क्रमिक आविर्भाव को गुणस्थान कहते है। हमारा लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है। ये गुणस्थान उस तक पहुँचने के लिए सोपान हैं। ज्यों-ज्यों आत्म विशुद्धि बढ़ती चली जाती है त्यों त्यों व्यक्ति गुणस्थानों में आगे बढता है। इस तरह चढते चढते चौदहवें गुणस्थान को पारकर सिद्धि सदन में पहुँच जाता है जो आत्मा की पूर्ण विशुद्ध अवस्था है।
आगम में कर्म विशुद्धि की अपेक्षा से ही चौदह स्थान बताए गए हैं। जैसे-
कम्म विसोहिय ग्गणं पडुच्च चोदस्स जीव ठाणा पन्नता तं जहा-मिच्छदिट्ठी, सासायण सम्म दिट्ठी, सम्म मिच्छ दिट्ठी, अविरय सम्मदिट्ठी, विरया विरए, पमत्त संजए, अप्पमत्त संजए, नियट्टि वायरे, अनियट्टि वायरे, सुहुम संपराए, उवसंत मोहे वा, खीण मोहे वा, संयोगी केवली, अयोगी केवली।
-समवायांग सं. 14
यहाँ पर चौदह गुणस्थानों के क्रमशः नाम बताए गए हैं और चौदह गुणस्थानों को आत्म विशुद्धि बताया गया है। जितनी जितनी आत्म विशुद्धि है वह गुणस्थान है, आत्मा का स्वरूप है, स्वाभाविक पर्याय है।
प्रथम गुणस्थान
पहला मिथ्या दृष्टि गुणस्थान है। यहाँ पर यह प्रश्न हो सकता है कि पहला गुणस्थान ही जब मिथ्यात्वी का है फिर वह विशुद्ध कैसे ? उत्तर बिल्कुल सीधा है। यहाँ पर प्रथम गुणस्थानवर्ती जीवों में जो जो गुण पाये जाते हैं उस अपेक्षा से गुणस्थान कहा है। उन जीवों के भी चारों घाती कर्मों का थोड़ा बहुत क्षयोपशम अवश्य रहता है। सूक्ष्म निगोद वाले जीवों के भी चारों ही घाती कर्मों का आंशिक क्षयोपशम होता है।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रथम गुणस्थान वर्ती जीव तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पाँच इन्द्रियाँ आदि को प्राप्त करता है जिससे वह आंशिक रूप से ही सही पर कुछ न कुछ यथानुरूप ज्ञान करता ही है यदि वह मनुष्य है तो आरम्भ परिग्रह आदि को दुःखमूलक और अहिंसा आदि को मोक्ष साधन जानने या मानने वाला भी हो सकता है और ये सब आत्मविशुद्धि के ही परिणाम है।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि मिथ्यात्वी के ज्ञान होता ही नहीं अज्ञान ही होता है व अज्ञान को भगवान ने आवश्यक सूत्र में हेय कहा है, जैसे-
“अन्नाणं परियाणामि नाणं उवसंपज्जामि”
अर्थात् “अज्ञान को छोड़ता हूँ और ज्ञान को ग्रहण करता हूँ” फिर मिथ्यात्वी के अज्ञान को उपादेय कैसे मानें ? इसका उत्तर यों जानना चाहिए कि वहाँ पर जो मिथ्यात्वी के अज्ञान बताया है वह पात्र की अपेक्षा से है न कि वस्तु की अपेक्षा से! वस्तु की अपेक्षा से तो वह ज्ञान ही है। किन्तु मिथ्यात्वी के पास होने से ही अज्ञान कहलाता है। जैसे-एक ही तालाब का स्वच्छ, सुस्वादु और शीतल सलिल घड़े आदि पवित्र बर्तन में रहकर पवित्र तथा गन्दे अपवित्र हुए बर्तन मेें अपवित्र बन जाता है। यद्यपि उस पानी की स्वच्छता और स्वादुता में कोई फर्क नहीं आता किन्तु पात्र की अपवित्रता मात्र ही उसे अपवित्र कहने में कारण बनती है। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम भाव भी सम्यग् दृष्टि के पास ज्ञान और मिथ्या-दृष्टि के पास अज्ञान कहलाता है।
आवश्यक सूत्र में जो अज्ञान को हेय बताया है वह अज्ञान क्षायोपशमिक नहीं है पर औदयिक है। ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होने वाला अज्ञान मिथ्यादृष्टि के क्षयोपशम जन्य अज्ञान से सर्वथा भिन्न है। औदयिक अज्ञान मिथ्यात्वी में ही नहीं किन्तु सम्यक्त्वी, साधु एवं बारहवें गुणस्थान तक वीतराग में भी आंशिक रूप से विद्यमान रहता है वह हेय है। तेरहवें गुण-स्थान में ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय होने से केवल ज्ञान(सम्पूर्ण ज्ञान) प्राप्त होता है, वहाँ अज्ञान नहीं रहता। बारहवें गुणस्थान तक सभी जीवों के ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मों के उदय और क्षयोपशम दोनों रहते हैं तरतमता अवश्य रहती है। जिसके उदय ज्यादा और क्षयोपशम कम होगा उसके अज्ञान ज्यादा और ज्ञान कम होगा, एवं जिसके क्षयोपशम ज्यादा और उदय कम होगा तो ज्ञान ज्यादा एवं अज्ञान कम होगा। परन्तु पूर्ण ज्ञानी यहाँ तक कोई नहीं होगा।
इस तरह अज्ञान के दो भेद हुए। एक तो औदयिक एवं दूसरा क्षायोपशमिक। इसमें प्रथम हेय और दूसरा उपादेय है।
अनुयोगद्वार सूत्र में भी इन दोनों का भिन्न भिन्न उल्लेख है औदयिक बोलों में जहाँ “अन्नाणी” शब्द दिया गया है वहाँ- क्षायोपशमिक बोलों में “मइ अन्नाणं, सुय अन्नाणं, विभंग अन्नाणं” आदि स्पष्ट रूप से कहा गया है।
इसी तरह दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाले चक्षु दर्शनादि भी उपादेय ही हैं। वे चाहे सम्यक्त्वी के हों या मिथ्यात्वी के।
मोहनीय कर्म के दो भेद हैं- दर्शन मोह, चरित्र मोह! दर्शन मोहनीय के कारण आत्मा में विपरीत श्रद्धा होती है एवं चरित्र मोहनीय के कारण आत्मा असत् प्रवृत्ति करती है, इसके विपरीत इनके क्षय, क्षयोपशम, उपशम से सम्यक श्रद्धा, सम्यक चारित्र एवं सत् क्रिया आदि होते हैं। पिछले दोनों कर्मों की तरह इसका (मोहनीय) भी प्रथम गुणस्थान में क्षयोपशम रहता है। दर्शन मोह के क्षयोपशम से ही प्रथम गुणस्थानवर्ती व्यक्ति तत्वों के प्रति यत्किंचित् सच्ची श्रद्धा रखता है, बहुत से मिथ्यात्वी जीव को जीव, धर्म को धर्म मानकर जितने अंश में सच्ची श्रद्धा करते है वह दर्शन मोह के ही क्षयोपशम का फल है। उसी को आगमों मे मिथ्यादृष्टि क्षयोपशम भाव बतलाया है। उसके मिथ्यात्व मोह का उदय भी रहता है, जिससे वह जीवादि तत्वों पर विपरीत श्रद्धा रखता है अतः वह मिथ्यात्व है पर गुणस्थान नहीं, गुणस्थान तो जो विशुद्धि है वही है।
यहाँ पर यह प्रश्न हो सकता है कि जब मिथ्यात्व को गुणस्थान नहीं माना जाता तो यहाँ पर मिथ्यादृष्टि गुण-स्थान क्यों कहा ? इसका उत्तर यह होगा कि उसके पास मिथ्यात्व होने से मिथ्यादृष्टि कहलाता है, पर मिथ्यात्व गुण-स्थान नहीं। जैसे- चतुर्थ गुणस्थान है अविरत सम्यक् दृष्टि-यहाँ जो अविरत बताया है वह गुणस्थान नहीं परन्तु सम्यक् दृष्टि गुणस्थान है। पांचवां गुणस्थान है व्रताव्रती। यहाँ पर भी जितना व्रत है वह गुणस्थान है पर अव्रत गुणस्थान नहीं वह तो अवगुण है, पर दोनों होने से व्रताव्रती कहा गया है। षष्ठम गुणस्थान प्रमत्त संयत है यहां पर प्रमत्तता गुण-स्थान नहीं संयतता गुणस्थान है, नवमां अनियट्ट बादर गुणस्थान है, यहाँ बादर कषायों से नहीं निवर्ता वह गुणस्थान नहीं पर बहुत सी कषायें छोड़ दी है वह गुणस्थान है। दसवां सूक्ष्म संपराय (थोड़ा कषाय)-यहाँ भी सूक्ष्म संपराय गुणस्थान नहीं वह तो हेय है। पर उस जीव का जो उज्ज्वल चरित्र है वह गुणस्थान है। तेरहवां गुणस्थान है संयोगी केवली, यहाँ पर जो पुण्य बंध का कारण योग है वह गुणस्थान नहीं पर केवल ज्ञानादि पवित्रता ही गुणस्थान है। इसी प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान नहीं पर मिथ्यात्वी के पास जो पवित्र गुण है वह गुणस्थान है।
दर्शन मोह की भाँति चारित्र मोह का भी आंशिक क्षयोपशम यहाँ पर रहता है जिससे वह अंश रूप में अहिंसा सत्यादि का पालन करता है वह धर्म है। चारित्र मोह के क्षयोपशम से ही वह वीतराग की आज्ञानुसार दान, ध्यान आदि शुभ क्रियाएं करता है।
जैन धर्म के दृष्टिकोण में वह संकीर्णता नहीं कि जैन करे वह धर्म और अजैन की अच्छी क्रिया भी अधर्म। इसको स्पष्ट करने के लिए आचार्य श्री तुलसी ने कहा-
सत् करणी सबकी अच्छी, जैनेतर जैन क्या, जैनेतर जैन क्या
कहे जिनवर बाल तपस्वी भी देशाराहए
जय जैन धर्म की ज्योति, जगमगती ही रहे।
भगवान महावीर ने बाल तपस्वी को मोक्ष मार्ग का देशाराधक कहा है। मिथ्यात्वी मनुष्य या पशु के ही नहीं किन्तु एकेन्द्रिय के भी अंशतः शुभ अध्यवसाय रहते हैं और वह धर्म है, वीतराग की आज्ञा में है। यदि ऐसा न हो तो एकेन्द्रिय का द्वीन्द्रिय भी नहीं हो सकता न मिथ्यात्वी का सम्यक्त्वी हो सकता है।
सुमुख गाथापति ने दान के द्वारा तथा स्वयंप्रभ हाथी (मेघकुमार का पूर्व भव) ने दया के द्वारा मिथ्यात्वी दशा में परित्त संसार किया एवं मनुष्यायुष्य का बंधन किया ऐसे अनेकों उदाहरण आगमों में प्रभाणित है।
प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव सदनुष्ठान के कारण सुव्रती तक कहा जाता है इत्यादि अनेक आगम प्रमाणों के द्वारा यह बात फलित होती है कि मिथ्यात्वी के धर्म होता है।
श्री सेनाचार्य ने सेन प्रश्नोत्तर में मिथ्यात्वी के सकाम निर्जरा का होना भी कहा है यदि वह कर्म क्षय की भावना से करता है। यदि सकाम निर्जरा न हो तो बाल तप एवं अकाम निर्जरा मे दो भेद अनावश्यक हो जाते हैं। उसी तरह मिथ्यात्वी को पाँच लब्धि एवं बालवीर्य अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होते हैं अतः वे भी विशुद्ध या उपादेय हैं।
यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि घाती कर्मों का जहाँ उदय होगा, वहाँ क्षयोपशम भी अवश्य होगा एवं जहाँ क्षयोपशम होगा वहाँ उदय भी अवश्य होगा। जहाँ सर्वथा अनुदय है वहाँ क्षयोपशम नहीं क्षय या उपशम है।
अतः यह सिद्ध हुआ कि मिथ्यात्वी के पास जितना भी ज्ञान (अज्ञान) दर्शन, शुद्ध, सदाचार एवं आत्म पराक्रम है वह गुणस्थान है एवं उपादेय है और मिथ्यात्व अविरत आदि अन्य वस्तुएं गुणस्थान नहीं, हेय है।
यह गुणस्थान चारों गति में होता है सदा शाश्वत है इस गुणस्थान में अनन्त जीव प्रतिसमय मिलते है, विरह कभी नहीं होता। इसकी स्थिति एक जीव की अपेक्षा तीन तरह की है। 1. ’अनादि अनन्त’ जो कि अमोक्षगामी जीवों की अपेक्षा से है। 2. ’अनादि सान्त’ जो कि मोक्षगामी जीवों की अपेक्षा से है। 3. ’सादि सान्त’ जो सम्यक्त्व पाकर वापिस गिर गए है उनकी अपेक्षा से है। ऐसे व्यक्ति जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट कुछ कम अर्धपुद्गलपरावर्तन काल में अवश्य ही पुनः सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते है। उपर्युक्त तीनों के अतिरिक्त चैथा भंग सादि अनंत भी हो सकता है, पर ऐसा कोई भी जीव नहीं हो सकता कि जिसमें एक बार सम्यक्त्व आ गई हो और वह फिर मिथ्यात्वी होने के बाद अनन्त काल तक (अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन से भी अधिक काल तक) मिथ्यात्वी रह सके। इसलिए तीन ही भंग सार्थक पाये जाते हैं, चैथा नहीं।
दुसरा गुणस्थान
दूसरा गुणस्थान है सास्वादन सम्यग्दृष्टि। सम्यक्त्व पाँच प्रकार का होता है। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, सास्वादन और वेदक! अनन्ततानुबन्धी चतुष्क (क्रोध,मान,माया,लोभ) एवं दर्शन मोहनीय त्रिक (मिथ्यात्व मोह, मिश्र मोह, सम्यक्त्व मोह) इन सात प्रकृतियों का उपशम होने से औपशमिक, क्षय होने से क्षायिक व इनके विपाकोदया का अभाव होने से क्षयोपशम सम्यक्तव होत है। औपशमिक सम्यक्त्व वाला व्यक्ति जब गिरता हुआ प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करता है गिरने के बाद व प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करने से पूर्व की जो अवस्था है वह सास्वादन सम्यक् दृष्टि गुणस्थान है और इस गुणस्थान वाला प्राणी ही सास्वादन सम्यक्त्व वाला होता है।
उदाहरणार्थ वृक्ष से गिरने वाला फल जब तक पृथ्वी पर नहीं आ जाता तब तक वह इस स्थिति मे रहता है जो वृक्ष और पृथ्वी दोनों से ही सम्बन्धित नहीं होती। वैसे ही सम्यक्त्व से च्युत होने वाला जब तक मिथ्यात्व में नहीं आता, एक ऐसी स्थिति में गुजरता है जो न तो सम्यक्त्व से सम्बन्धित होती है और न मिथ्यात्व से। फिर भी पूर्व सम्यक्त्व का यहाँ पर आस्वादन रहता है। अतः इसी अपेक्षा से इस अवस्था को सास्वादन सम्यक्त्व बतलाया गया है। यह भी विशुद्धि की अपेक्षा से गुणस्थान है, गिरने की अपेक्षा से नहीं। पतन तो मोह कर्म के उदय से होता है अतः उदय गुणस्थान नहीं विशुद्धि का जितना अंश है वह गुणस्थान है।
यहाँ यह प्रश्न भी होता है कि तीसरा गुणस्थान तो मिश्र दृष्टि है एवं दूसरा सम्यग् दृष्टि, फिर इसका स्तर नीचा क्यो ? एक दृष्टि से तो यह ठीक है, पर मिश्र वाले की गति दोनों और हो सकती है, वह आगे भी बढ सकता है एवं नीचे भी गिर सकता है, पर दूसरे गुणस्थान वाला तो गिरेगा ही। इसी अपेक्षा से इसको दूसरा एवं मिश्र को तीसरा गुणस्थान कहा गया मालूम होता है।
यह गुणस्थान चारों गतियों में पाया जाता है पर यह शाश्वत नहीं है। इस स्थान में जीव कभी मिलते हैं कभी कहीं। उत्कृष्ट असंख्य मिल सकते हैं क्योंकि सम्यक्त्वी असंख्य हैं उनमें गिरने वाले भी असंख्य हो सकते है।
इस गुणस्थान की स्थिति सिर्फ 6 आवलिका है (एक मुहुर्त-अड़तालीस मिनट की 16777216 आवलिका होती है।) फिर वह प्रथम गुणस्थान में आ जाता है।
यह गुणस्थान एकेन्द्रिय जीवों में व विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में भी नहीं होता। औपशमिक सम्यक्त्व से गिरते समय यदि आयु पूर्ण कर कोई जीव विकलेन्द्रिय एवं असंज्ञी पंचेन्द्रिय में जन्म धारण करता है। तो उसकी अपर्याप्त अवस्था की स्थिति में यह गुणस्थान हो सकता है अन्यथा नहीं।
तीसरा गुणस्थान
तीसरा मिश्र दृष्टि गुणस्थान है। जीव-अजीव, साधु-असाधु, धर्म-अधर्म, सन्मार्ग-कुमार्ग, मुक्त और अमुक्त इन दस बोलों को या किसी एक को भी विपरीत समझने वाला मिथ्या दृष्टि व इनमें सन्देह रखने वाला मिश्र दृष्टि गुणस्थान होता है। जैसे जीव है या नहीं ? वीतराग द्वारा कथित तो है पर देखने में नहीं आता। ऐसे ही अन्य बोलों के प्रति शंकाशील रहने वाला मिश्र दृष्टि कहलाता है।
यहाँ पर जो सन्देह है वह गुणस्थान नहीं, वह तो हेय है, सम्यक्त्व का अतिचार है। फिर वह गुणस्थान कैसे हो सकता है ? अतः मिश्र दृष्टि वाला जीव जो तत्व या तत्वों पर सम्यक् श्रद्धा रखता है, वह गुणस्थान है।
इस गुणस्थान वाला जीव डांवाडोल स्थिति में रहता है। अतः आयुष्य कर्म का बंघ व मृत्यु भी यहाँ नहीं होती।
यह गुणस्थान भी अशाश्वत है। यदि रहे तो उत्कृष्ट असंख्य जीव भी इस गुणस्थानवर्ती रह सकते है। यह चारों गति में पाया जाता है, पर संज्ञी पर्याप्त अवस्था वालों को ही यह प्राप्त होता है। इसकी स्थिति अन्तर्मुहुर्त की है। बाद में या तो ऊपर चतुर्थ आदि गुणस्थानों में या नीचे प्रथम गुणस्थान में चला जाता है।
चतुर्थ गुणस्थान
चतुर्थ अविरत सम्यग् दृष्टि गुणस्थान है। जो जीवादि सभी तत्वों पर सम्यग् श्रद्धा रखता है वह सम्यक् दृष्टि है। इस अवस्था में न तो विपरीत श्रद्धा होती है और न सन्देह। सम्यक्त्व के शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये पाँच लक्षण कहे जाते हैं, जो कि इस गुणस्थानवर्ती व्यक्ति में पाए जाने चाहिए। अनन्तानुबन्धी चतुष्क का न होना शम है, मोक्षाभिलाषा संवेग है, भव विराग निर्वेद है, निरवद्य दया अनुकम्पा है, आत्मा, कर्म आदि विषयों में दृढ़ श्रद्धा रखना आस्तिक्य है। इन पाँचों लक्षणों में से शम एवं आस्तिक्य ये दो मूल लक्षण हैं। इनके बिना सम्यक्त्व रह नहीं सकता और तीन उत्तर लक्षण हैं।
इस स्थिति में आत्मा अपने आपको परख लेती है व हेय और उपादेय का विवेक लिए चलती है।
इस गुणस्थानवर्ती जीवों में औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक एवं वेदक चारों प्रकार का सम्यक्त्व होता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के आखिरी समय में प्रकृति का प्रदेशोदय में जो सूक्ष्म वेदन रहता है उसी को वेदक सम्यक्त्व कहा जाता है। यह सम्यक्त्व एकबार से अधिक नहीं आता एवं उसके बाद अवश्य ही क्षायिक सम्यक्त्व आता है।
श्रद्धा पूर्ण होने पर भी विरति इस स्थान में बिलकुल नहीं होती। मिथ्यात्व आश्रव नहीं होने पर भी अविरत आश्रव के कारण निरन्तर पाप कर्म यहाँ पर लगता रहता है।
यहाँ अविरत सावद्य है, हेय है, गुणस्थान नहीं है। गुणस्थान तो सम्यक्त्व है और वह उपादेय है। साहचर्य के कारण तथा पहचान के लिए इस गुणस्थान का नाम अविरत सम्यग् दृष्टि दे दिया है।
यों तो यह गुणस्थान चारों ही गति में होता है, पर पाँच अनुत्तर विमान, नव लोकान्तिक एवं गृहस्थ तीर्थकरों में तो एक मात्र यही होता है। यह गुणस्थान शाश्वत् है, हर समय इसमें असंख्य जीव मिलते है। इसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त एवं उत्कृष्ट 33 सागर की है।
पंचम गुणस्थान
पंचम गुणस्थान देश-विरति नाम से प्रसिद्ध है। इस गुणस्थान मे सम्यक्त्व के साथ देशविरति भी होती है। अन्तरात्मा की अत्याग रूप आशा वांछा को अविरत आश्रव कहा जाता है। इसका पूर्ण निरोध तो यहाँ पर नहीं होता पर अंशतः होता है। इसी आंशिक निरोध की अपेक्षा से श्रावक के पाँच क्रियाओं में से अविरत की क्रिया का न होना भगवती एवं प्रज्ञापना सूत्र में कहा है। साथ ही भगवती, स्थानांग आदि अनेकों स्थानों पर श्रावक को व्रताव्रती, संयतासंयति, धर्माधर्मी, प्रत्याख्यान्यप्रत्याख्यानी आदि नामों से भी अभिहित किया गया है। ऊपर वाले कथन से यह सिद्ध होता है कि श्रावक को अविरत की क्रिया नहीं होती परन्तु नीचे वाले अभिधानों से लगता है कि यदि उसके अविरत की क्रिया न हो तो फिर उसे व्रताव्रती क्यों कहा गया है ? अविरत तो हो और अविरत की क्रिया न हो यह कैसे सम्भव हो सकता है ? निष्कर्ष यह है कि श्रावक के अविरत की क्रिया माननी ही पड़ेगी। एक प्रश्न उठ सकता है कि ऐसा मानने से तीन क्रिया के कथन की संगति कैसे हो सकेगी ? इसका उत्तर यह हो सकता है कि जैसे भगवती में ही धर्मास्तिकाय के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि दिशाओं में होने का निषेध केवल पूर्णता की दृष्टि से ही किया गया है आंशिकता की दृष्टि से तो वह वहाँ है ही। उसी प्रकार से यहाँ भी अविरत की क्रिया का जो निषेध किया गया है वह पूर्णता की दृष्टि से ही है। आंशिक क्रिया तो है ही।
भगवती सूत्र के ही एक दूसरे कथन से भी यह सिद्ध होता है कि श्रावक के अविरत की क्रिया होती है वहाँ कथन किया गया है कि कोई गाथापति अपने चोरी गए हुए माल का अन्वेषण करता है तब उसे पाँच क्रियाओं में से चार का होना तो निश्चित ही हैं। मिथ्याप्रत्ययिकी क्रिया के लिए विकल्प है कि वह किसी के होती है और किसी के नहीं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अन्वेषणकर्ता यदि श्रावक है तो उसके चार क्रियाएं होगी और यदि मिथ्या दृष्टि है तो उसके पाँच। इस प्रकार भगवती के इन दोनों परस्पर विरोधी पाठों की संगति इस अपेक्षा दृष्टि से ही बैठ सकती है कि जहाँ अविरत की क्रिया का निषेध है वहाँ पूर्णतः की दृष्टि से है और जहाँ कथन है वहाँ आंशिक दृष्टि से है, अन्यथा दोनों पाठ एक दूसरे के विरूद्ध चले जाते है।
सम्यक्त्व के बाद जो साधारण-सा भी त्याग करता है वह भी देश विरति है एवं ग्यारहवीं प्रतिमाधारी या आजीवन अनशन करने वाला भी देशविरति है। देश का अर्थ है अंश जो थोड़ा भी हो सकता है एवं अधिक भी। जब तक पूर्ण विरति नहीं है तब तक देश विरति है। इस प्रकार यहाँ भी यही समझना चाहिए कि श्रावक के जितनी विरति है वही उसका गुणस्थान है, अविरति आशा वांछा गुणस्थान नहीं है।
यह गुणस्थान भी शाश्वत है। असंख्य जीव इसमें निरन्तर मिलते हैं। चार गति में से सिर्फ दो गति में ही यह होता है। देशविरति मनुष्य संख्यात ही है क्योंकि अढाई द्वीप से बाहर मनुष्य नहीं होते। इससे बाहर असंख्य द्वीप समुद्रों में जो तिर्यंच हैं वे बिना साधु संग के ही जातिस्मरणादि से अपना पूर्वभव जानकर सम्यक्त्व एवं देश विरत पाते हैं और वे असंख्य हैं।
यह गुणस्थान संज्ञी पर्याप्त में ही पाया जाता है अन्य में नहीं। उनमें भी तीर्थंकर आदि त्रिषष्ठि शलाका पुरुषों व अकर्म भूमि के मनुष्यों में नहीं होता। जयाचार्य ने चौबीसी की चौदहवीं गीतिका में कहा है कि-
जिन चक्री सुर जुगलिया रे वासुदेव बलदेव।
पंचम गुण पावे नहीं रे रीति अनादि स्वमेव।।
इस गुणस्थान की स्थिति कुछ कम क्रोड़ पूर्व की है। इस गुणस्थान में आयु पूर्ण करने वाले निश्चित रूप से वैमानिक देव होते हैं।
षष्ठम गुणस्थान
छठा प्रमत्त संयत गुणस्थान है। “सर्व व्रतः संयतः” अर्थात् सर्व विरति युक्त व्यक्ति को संयत कहते हैं। यह देश विरति से उच्च स्तरीय स्थिति होती है; इस गुणस्थान में मिथ्यात्व और अविरत आश्रव का तो पूर्ण निरोध हो जाता है पर प्रमादादि तीन आश्रवों के कारण आत्मा के निरन्तर पाप कर्म चिपकते रहते हैं।
यहाँ इतना स्मरण रहे कि जो पाँच प्रमाद-मद, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा के नाम से प्रसिद्ध हैं वे प्रमाद आश्रव न होकर अशुभ योग आश्रव हैं। जो छठे गुणस्थान में निरन्तर नहीं रहते क्योंकि निरन्तर रहने से षष्ठ गुणस्थान ही (साधुपन) नहीं रह सकता छद्मस्थता के कारण कदाचित् जब इस ओर प्रवृत्ति हो जाती है तब उसका प्रायश्चित करना पड़ता है।
यहाँ जिस प्रमाद आश्रव का कथन है उसका अर्थ है ’अनुत्साह प्रमादः’ अर्थात् अन्तरात्मा में संयम के प्रति अनुत्साह। प्रमाद आश्रव षष्ठ गुणस्थान में निरन्तर रहता है।
साधुत्व ग्रहण करते समय सर्व सावद्य (अशुभ) योग का त्याग कर दिया जाता है साधुओं की समस्त कल्प क्रियाएं शुभ योग होती हैं। उनका खान-पान, गमनागमन, जल्पन, शयन आदि भी शुभ योग है उससे कर्म निर्जरा होती है, एवं साथ-साथ पुण्य बन्ध भी होता है। साधुओं के आहार एवं भिक्षावृत्ति को असावद्य बताया है अतः यह सब धर्म है।
इस गुणस्थान में चैदह योग, छः समुद्घात, पांच शरीर और छः लेश्या आदि होने का उल्लेख मिलता है वह कदाचित्कता की दृष्टि से ही किया गया है इनमें जो जो अशुभ है वे सब त्याज्य हैं। छद्मस्थता के कारण कभी-कभी ये त्याज्य प्रवृतियाँ भी भूल स्वरूप हो जाती है। सिद्धान्तों में कहा है कि दृष्टिवाद का अध्येता भी कहीं-कहीं वचन में स्खलना कर देता है। इतना ही नहीं किन्तु चार ज्ञान के धारक भी भूल कर जाते हैं। यह सब मोह की महिमा जाननी चाहिए। इसी के कारण आत्मा अशुभ कर्मों को आकर्षित करती है और इसी के उदय से असत् प्रवृतियाँ हुआ करती हैं। इसका उदय मात्र पाप बन्ध का कारण है।
षष्ठ गुणस्थानवर्ती मुनि गलतियाँ तो करता है पर जब तक उन गलतियों का प्रायश्चित करने की भावना रखता है तब तक नीति विशुद्ध होने के कारण अविरत आश्रव नहीं आता और उसकी साधुता नहीं जाती। इस विषय को स्पष्ट करते हुए जयाचार्य ने अपनी “नियंठों की ढ़ाल” में कहा है-
मासी चैमासी दण्ड थी रे छट्ठो
गुण ठाणों न फिरे सोय रे।
फिर अन्धी श्रद्धा ने थाप थी रे
भाई बले जबर दोष थी जोय रे।
सगुण जन स्वाम वचन अवलोय रे।
षष्ठ गुणस्थानवर्ती साधु का प्रमाद गुणस्थान नहीं है। यह तो सावद्य है, हेय है। गुणस्थान तो सर्व व्रत रूप संयम है वह निरवद्य एवं उपादेय है।
यह गुणस्थान भी शाश्वत है। पूर्वोक्त गुणस्थान की तरह इसमें असंख्य जीव नहीं है परन्तु संख्य ही है। उनकी संख्या जघन्यतः दो हजार चार सौ दो क्रोड़ तथा उत्कृष्ट नव हजार क्रोड़ होती है।
यह गुणस्थान सिर्फ कर्म भूमिक संख्य वर्ष आयुष्य पर्याप्त संज्ञी मनुष्य के ही हो सकता है अन्य के नहीं। इसकी स्थिति देशोन क्रोड़ पूर्व की है।
सतवां गुणस्थान
सप्तम अप्रमत्त संयत नामक गुणस्थान है। इसमें प्रमाद आश्रव का सर्वथा निरोध हो जाता है। अशुभ योग, अशुभ लेश्या, अशुभ ध्यान आदि भी निरूद्ध हो जाते हैं। इस गुणस्थान में निरन्तर ही विशुद्ध परिणाम रहते हैं।
पंचम गुणस्थानवर्ती व्यक्तियों को अविरत की अपेक्षा एवं षष्ठ गुणस्थानवर्ती व्यक्तियों को अशुभ योग की अपेक्षा से सिद्धान्तों में आरम्भी बताया गया है, किन्तु यहाँ अविरत और अशुभ योग का पूर्णतः अभाव होने के कारण इसे अनारम्भी बताया गया है। यहाँ पाँच क्रियाओें में से चार का अभाव होता है केवल एक “माया वत्तिया” क्रिया लगती है।
यहाँ पाप बन्ध के पाँच कारणों में से चार-मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद और अशुभ योग तो सर्वथा रूक जाते हैं पर जो एक कषाय आश्रव अवशिष्ट रहता है उसके द्वारा निरन्तर पाप लगता है। यह कषाय हेय है, सावद्य है किन्तु गुणस्थान नहीं, गुणस्थान तो अप्रमत्त अवस्था एवं संयम है। वह निरवद्य है, उपादेय है।
यह गुणस्थान संयम ग्रहण के समय तो प्रायः आती ही है पर बाद में भी जब-जब परिणामों की अत्यन्त एकाग्रता होती है और प्रमाद आश्रव छूट जाता है तब छट्ठे से सातवां गुणस्थान आ जाता है। किन्तु यह स्थिति अधिक समय तक नहीं ठहरती अन्तर्मुहुर्त के बाद वापिस छट्ठा गुणस्थान आ जाता है।
यह गुणस्थान अशाश्वत है। यदि मिले तो इसमें उत्कृष्ट दो सौ करोड़ मिल सकते हैं। इसकी स्थिति अन्तर्मुहुर्त की है।
आठवां गुणस्थान
आठवां गुणस्थान निवृति बादर गुणस्थान है। इसमें आया हुआ प्राणी स्थूल बादर संज्वलन कषाय से निवृत होता हुआ क्रमशः आगे बढता जाता है।
आगे बढने वाले प्राणियों को यहाँ से दो श्रेणियां मिलती है-उपशम एवं क्षपक। जयाचार्य ने चौबीसी की चौदहवीं गीतिका में कहा है-
आठमां थी दोय श्रेणी छे रे, उपशम क्षपक पिछाण।
उपशम जाय ग्यारहवें रे, मोह दबावतो जाण।
इस गुणस्थानवर्ती व्यक्ति को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं होती। क्योंकि वह सातवें गुणस्थान से आगे नहीं हो सकती, यहाँ औपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्व होती है। उपशम श्रेणी लेने वाले के उक्त दोनों प्रकार की सम्यक्त्व हो सकती है क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व होते हुए भी उपशम श्रेणी ली जा सकती है, उपशम श्रेणी वाला मोह कर्म की प्रकृतियों को दबाता जाता है।
इस श्रेणी वाला संयमी यहाँ से बढकर नवें दसवें एवं ग्याहरवें गुणस्थान तक चला जाता है और वहाँ मोहनीय कर्म को पूर्णतः उपशान्त कर उपशम चारित्र प्राप्त कर लेता है परन्तु उससे आगे उसका रास्ता बन्द होता है क्योंकि अवशिष्ट सात कर्मों का उपशम नहीं होता, तथा मोह कर्म के ’उपशम’ की स्थिति भी अन्तर्मुहुर्त से अधिक नहीं होती, अतः वह या तो क्रमशः वापिस नीचे आता है, या यदि आयु पूर्ण हो गई हो तो स्वर्गवासी बन जाता है।
जो व्यक्ति यहाँ से क्षायिक श्रेणी ग्रहण करते है उनके क्षायिक सम्यक्त्व ही होता है। वे क्रमशः मोह कर्म की प्रकृतियों को क्षय करते हुए आगे बढते है। आठवें से नवमां एवं दसवां गुणस्थान प्राप्त कर लेने के बाद वे ग्यारहवें को छोड़कर सीधे बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाते है, वहाँ पर मोहनीय का सर्वथा क्षय हो जाता है और फिर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तराय का भी क्षय हो जाता है। इस प्रकार चार घाती कर्मों के साथ ही वे सर्वज्ञ हो जाते हैं और फिर यथा समय योग निरोध करते हुए मोक्ष प्राप्त करते हैं।
क्षायिक श्रेणीवाला वापिस नहीं गिरता और वह मध्य में आयुष्य पूर्ण भी नहीं करता क्योंकि समूल नष्ट की हुई प्रकृतियाँ फिर पनप नहीं सकती। झीणी चर्चा में जयाचार्य ने कहा है-
क्षपक श्रेणी में काल करे नहीं, पड़े नहीं ते पाछो रे।
दशवां थी बारवां तेरवां गुण, केवल पामे जाचो रे।
इस तरह क्षायक श्रेणी वाला जो गुण प्राप्त करता है। वह शाश्वत है। उपशम श्रेणी लेने वाला उसी भव में फिर क्षायिक श्रेणी नहीं ले सकता अतः वह मोक्ष भी नहीं जा सकता। जो मोक्षगामी होते हैं वे क्षायक श्रेणी ही लेते है। जयाचार्य कहते हैं-
उपशम श्रेणी जिन ना लहे रे क्षपक श्रेणी धर खंत।
चारित्र मोह खपावतां रे चढिया ध्यान अत्यंत। (चोबीसी14)
यहाँ पर जितना स्थूल बादर कषाय से निवृत होता है वही गुणस्थान है पर जितना कषाय, वेद व हास्यादि प्रकृतियों का उदय है वह सब सावद्य है, पाप कर्म बन्ध का कारण है, अतः हेय है।
यह गुणस्थान वर्तमान में भरत क्षेत्रस्थ साधुओं में नहीं है। यह गुणस्थान अशाश्वत है। यदि मिले तो 54 उपशम श्रेणी वाले एवं 108 क्षायिक श्रेणी वाले मिल सकते हैं, यों दोनों मिलकर एक साथ ग्रहण करने वाले 162 हो जाते हैं। इसकी स्थिति अन्तर्मुहुर्त है।
नवमां गुणस्थान
नवमां अनिवृत्ति बादर गुणस्थान है। यद्यपि बादर कषायों से निवृत्ति का प्रारम्भ तो पिछले गुणस्थान में ही हो जाता है पर इसमें उस निवृत्ति में काफी वृद्धि हो जाती है फिर भी पूर्ण निवृत्ति यहाँ नहीं हो पाती। इसी दृष्टिकोण से इसका नाम अनिवृत्ति बादर गुणस्थान किया गया है।
यहाँ उपशम या क्षायिक रूप में कषायों की जितनी भी निवृत्ति होती है वह गुणस्थान है, उपादेय है। एवं जो काषायिक उदय है वह सावद्य है, हेय है। वह गुणस्थान नहीं है।
इस गुणस्थान में प्रविष्ट प्रणाली क्रमशः नपुंसक वेद, स्त्री वेद, हास्य, अरति, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरूष वेद, संज्वलन-क्रोध, मान, माया उपशम श्रेणी वाला दबाता जाता है, तथा क्षपक श्रेणी वाला नष्ट करता जाता है। अन्त समय में एक लोभ रहता है।
श्री जयाचार्य ने कहा-
नवमें आदि संजल चिहुँ रे अन्त समय इक लोभ। (चौबीसी14)
मोह कर्म की 28 ही प्रकृतियों के क्षय का क्रम बतलाते हुए श्री जयाचार्य झीणी चर्चा में कहतें हैं -
प्रथम चोक अनुतान फुनः मिथ्यात्व खपावे,
फुनः मिश्रमोह टाट फुनः समकित मा जावे।
अप्रत्या प्रत्या चोक नपुंसक पुनः श्री वेदः,
हास अरति रति शोग बले दुगुँछा भय छेदः
पुरूष वेद संज्वलन कोह मान माया लोह खपत कर्म
चढ खपक सेणि मह मुनि लहे अनन्तनाण शिवबुधपर्म
यह गुणस्थान भी आठवें की तरह आशाश्वत है। इसकी स्थिति भी अन्तर्मुहुर्त है। इस गुणस्थान में प्राणी के सात कर्म का बन्ध होता रहता है।
दशम गुणस्थान
दसवां सूक्ष्म संपराय गुणस्थान है। मोह की अट्ठाईस प्रकृतियों में से सत्ताईस तो इस गुणस्थान से पूर्व ही सर्वथा उपशान्त या क्षय हो जाती है इसमें केवल एक संज्वलन लोभ शेष रहता है वह भी सूक्ष्म मात्रा में ही होता है।
इस गुणस्थानवर्ती व्यक्ति का चरित्र एवं गुणस्थान सूक्ष्म संपराय कहलाता है। सूक्ष्म संपराय का अर्थ होता है थोड़ा सा कषाय। यहाँ पर भी जो थोड़ा सा कषाय अवशिष्ट रहता है वह गुणस्थान नहीं हैै, गुणस्थान तो उस जीव का उज्ज्वल चारित्र है।
यहाँ पर अनाकार उपयोग नहीं होता क्योंकि दशम गुणस्थान का प्रारम्भ साकार उपयोग से होता है और साकार उपयोग की अन्तर्मौहूर्तिक स्थिति इस गुणस्थान की अन्तर्मौहूर्तिक स्थिति से अधिक होती है अतः अनाकार उपयोग आने से पहले ही गुणस्थान बदल जाता है।
यहाँ पर सूक्ष्म संपराय के कारण निरन्तर छह कर्मो का ही बन्ध होता है। आयुष्य एवं मोहनीय कर्म का यहाँ पर बन्ध नहीं होता। यद्यपि यहाँ पर मोह कर्म का उदय रहता है, फिर भी वह इतना प्रबल नहीं होता कि फिर से मोह कर्म का बन्ध कर सके। आयुष्य कर्म का बन्ध तो सातवें से आगे है ही नहीं। सातवें में भी छट्ठे से आयुष्य का बन्ध प्रारम्भ हुआ हो तो उसे पूरा कर सकता है पर वहाँ नया बन्ध प्रारम्भ नहीं करता।
इस सम्बन्ध में जयाचार्य ने कहा हैः-
आयु अबन्ध सातमां आगे बलि तीजो गिण लीज्यो रे।
अर्थात् सातवें से अगले सभी गुणस्थान तथा तृतीय गुणस्थान में आयु बन्ध नहीं होता। इस गुणस्थान में वेदनीय कर्म का बन्ध भी सात वेदनीय तक ही सीमित है। असात वेदनीय का बन्ध नहीं होता।
यह गुणस्थान भी अशाश्वत है इसकी स्थिति अन्तर्मुहुर्त है। पिछले दोनों गुणस्थानों की अपेक्षा इसकी स्थिति कम है।
ग्यारहवां उपशान्त मोह गुणस्थान है, यहाँ मोह कर्म का सर्वथा उपशम हो जाता है। अत्र-स्थित-आत्मा वीतराग बन जाता हैं “अकषायो वीतरागः” कषाय का सर्वथा अभाव वीतरागता है। क्षपक श्रेण्यारूढ व्यक्ति इस गुणस्थान में नहीं आता। उपशम श्रेणी वाला जीव क्रमशः मोह को दबाता हुआ यहाँ पर पहुँचता है एवं यथाख्यात (यथा आख्याति तथा पालयति) चारित्र पालता है, तथा पापकर्म का बन्ध सर्वथा रोक देता है। यहाँ सिर्फ सात-वेदनीय का बन्ध होता है। जो कि पुण्य कर्म है। इस बन्ध को ईर्यापथिक कहते हैं। वीतराग के सिवाय अन्य जीवों का बन्ध साम्परायिक होता है “साम्परायिकः शेषस्य” सरागी के जो शुभाशुभ कर्मों का बन्ध होता है उसे साम्परायिक कहते हैं।
इस गुणस्थाननवर्ती आत्मा की वीतरागता अन्तर्मुहुर्त से अधिक ठहर नहीं सकती। क्योंकि ऊपर का मार्ग बन्द है। यदि यहाँ आयु पूर्ण करे तो वह अनुत्तर विमान में चतुर्थ गुणस्थान में जाता है अन्यथा क्रमशः नीचे गिरता है।
आश्चर्य तो यह है कि इतनी उन्नत आत्मा को भी दबा हुआ मोह उदय में आकर नीचे तक भी ला गिराता है एवं अनन्त काल (देशोन अर्धपुद्गल परावर्तन) तक यहाँ से उठने नहीं देता। वीतराग से च्युत होकर संसार परिभ्रमण करने वाले प्राणी संसार में हर समय मिलते हैं और वे संख्या में अनन्त होते हैं। आश्चर्य नहीं हम भी वहाँ तक पहुँचकर उस वीतरागता का अनुभव करके आए हुए हों।
अस्तु भविष्य में चाहे जो कुछ हो पर वर्तमान में इस गुणस्थानवर्ती जीव के पूर्ण वीतरागता होती है वह औपशमिक वीतरागता होती है अतः उस गुणस्थान का नाम है उपशान्त मोह गुणस्थान। वह उपादेय है वहाँ से वापिस गिरना गुणस्थान नहीं है।
यह गुणस्थान वर्तमान में तो बारहवें के सदृश ही है, पर यहाँ बहुत बड़ा भेद भी है कि इस गुणस्थान वाला भविष्य में अवश्य गिरता है जबकि बारहवें गुणस्थान वाला आगे बढ़कर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है।
उदाहरण से इसे यों समझा जा सकता है कि जिस प्रकार वर्तमान के दो कोट्याधीशों में एक भविष्य के लिए निर्धन होने वाला है एवं दूसरे की सम्पत्ति स्थायी एवं बढ़ने वाली है। वहाँ उन दोनो की वर्तमान कोट्याधीशता में कोई अन्तर नहीं होता।
यह गुणस्थान भी अशाश्वत है, ग्रहण करने वाले यदि मिलें तो एक साथ 54 मिल सकते है। इसकी स्थिति अन्तर्मुहुर्त है।
बारहवाँ गुणस्थान
बारहवाँ गुणस्थान क्षीण मोह गुणस्थान है। क्षपक श्रेणी में आरूढ़ प्राणी क्रमशः मोह कर्म को नष्ट करता हुआ दशम गुणस्थान से सीधा यहाँ पहुँचता है, यहाँ वह मोह कर्म को आत्मा से सर्वथा दूर फैंक देता है। वीतरागी के साथ साथ वह क्षायिक चारित्री भी बन जाता है। ग्यारहवें गुणस्थान की तरह यहाँ गिरने का भय नहीं रहता। यह अप्रतिपाती गुणस्थान है अतः आत्मा गुणों की ओर आगे ही बढ़ती है।
इसकी एवं ग्यारहवें गुणस्थान की वर्तमान अवस्था समान होती है। संयम स्थान भी एक ही होता है। परिणामों की भी सदृशता होती है। पिछले गुणस्थानों में एक ही चारित्र के संयम पर्यायों में जो अनंत गुणा अन्तर रहता है वह ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानवर्ती यथाख्यात चारित्री में कतई नहीं रहता।
यद्यपि इस गुणस्थानवर्ती आत्मा की भूमिका अत्यन्त उन्नत तथा अप्रतिपाती होती है फिर भी उसमें छद्मस्थता अवशिष्ट रहती है। घाती कर्मों की औदयिक अवस्था का नाम “छद्म” है उस अवस्था में रहने वाला ’छद्मस्थ’ कहलाता है। इस गुणस्थान मे घाती कर्मों-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीनों का उदय रहता है। यहाँ जितने अंशों में आत्मगुण उपलब्ध होते हैं, परन्तु उन गुणों की पूर्णता क्षायिक भाव की अपेक्षा रखती है। वह यहाँ नहीं है।
उपर्युक्त तीनों कर्मों का उदय होते हुए भी यहाँ चारित्र पूर्ण है और वही गुणस्थान है तथा उपादेय है। इन तीनों का उदय गुणस्थान नहीं है वह तो हेय है। यद्यपि इन तीनों का उदय आत्मा को कोई अनिष्ट कर्म की और प्रवृत नहीं कर सकता और न आत्मा को पाप से भारी बना सकता है। परन्तु फिर भी वे स्वयं तो पाप ही होते हैं। चार घाती कर्मों में पाप बन्ध का कारण तो सिर्फ मोह कर्म ही होता है शेष तीन स्वयं पाप होते हुए भी पाप बन्ध के कारण नहीं बनते।
यह गुणस्थान अशाश्वत है। यदि मिले तो एक साथ इसे ग्रहण करने वाले उत्कृष्ट 108 मिल सकते हैं। इसकी स्थिति अन्तर्मुहुर्त है।
तेरहवां गुणस्थान
तेरहवां सयोगी केवली गुणस्थान है। मोह कर्म का नाश तो बारहवें गुणस्थान में ही हो जाता है। यहाँ अवशिष्ट तीन कर्मों को तोड़कर केवल ज्ञान (सर्वज्ञता) केवल दर्शन (सर्वदर्शिता) और क्षायिक लब्धि (सर्वशक्तिमत्ता) प्राप्त कर ली जाती है। इस गुणस्थान में प्रविष्ट होते ही एक अभूतपूर्व शक्ति प्राप्त होती है। इससे आत्मा समस्त भूत भावी तथा वर्तमान के द्रव्य गुण पर्यायों को करामलकवत जान एवं देख लेती है।
ज्ञानावरणीय कर्म के उदय एवं क्षयोपशम से ज्ञान में तरतमता पैदा होती है और उसके कारण ज्ञान के अनेक भेद हो जाते हैं। मति, श्रुत, अवधि तथा मनः पर्यव ये इसके मुख्य भेद होते हैं तथा अवग्रह, ईहा आदि मति के, अंग प्रविष्ट, अंग बाह्य आदि श्रुत के, हीयमान वर्द्धमान आदि अवधि के, ऋजुमति, विपुलमति आदि मनः पर्यव के अवान्तर भेद प्रभेदों की संख्या काफी बड़ी हो जाती है। उन सब की यहाँ पर कोई अपेक्षा नहीं रह जाती है। यहाँ ज्ञान संबंधी समस्त आवरण दूर हो जाने से तरतमता विहीन एक ही परिपूर्ण केवल ज्ञान हो जाता है, अर्थात् पिछले सभी ज्ञान इसमें समा जाते हैं। वस्तुतः ज्ञान एक ही है। भिन्नता तो क्षयोपशम की विविध भूमिकाओं के कारण बनती है। जैसे-कोई रजत (चांदी) की शिला जमीन में गड़ी हुई हो और चारों ओर से परिपूर्ण आच्छादित हो कालान्तर में कुछ कारण उपस्थित होने पर जब वह एक तरफ से थोड़ी सी खुलती है तब लगता है कि यह कोई चांदी का टुकड़ा है, जब दूसरी ओर से थोड़ी सी खुलती है तब वह दूसरा चांदी का टुकड़ा सा लगता है। इसी तरह तीन, चार आदि टुकड़े मालूम होने लगते हैं । परन्तु जब मिट्टी पूर्णतः अलग हो जाती है तब पता चलता है कि पहले जो अलग अलग टुकड़े मालूम दे रहे थे वे सब इसी एक शिला के भाग थे। इसी प्रकार सब आवरण दूर होने से एक केवलज्ञान कहलाता है और उससे पूर्व उसकी आंशिक अवस्थाएं विभिन्नताओं से उल्लिखित की जाती है। केवल दर्शन को भी इसी तरह समझना चाहिए।
ये सब उत्तम वस्तुएं हैं ग्रहणीय हैं इन्हे ही गुणस्थान कहा जाता है। इतना होते हुए भी यहाँ पर तीनों ही योगों मनोवाक्काय की प्रवृत्ति चालू रहती है। यह प्रवृत्ति शुभ होती है। अतः उससे केवल पुण्य का ही बंधन होता है यद्यपि उस पुण्य बंध की स्थिति केवल दो समय ही होती है। वह गाढ बन्धन नहीं कर सकता, उस स्थिति में शुभ पुद्गल आते हैं, आत्मा के साथ एकीभूत होते हैं व तत्काल बिखर जाते हैं फिर भी वह बन्धन तो है ही। उसी शुभ योग के द्वारा प्रति समय निर्जरा भी होती रहती है, अतः शुभयोग को ग्रहणीय भी माना जाता है पर शरीर नाम कर्म के उदय से शुभयोग प्रवृत्त होता है एवं पुण्य बन्ध करता है, अतः वह गुणस्थान नहीं है वह तो छोड़ने योग्य है।
इस गुणस्थान में कुछ सर्वज्ञों के ही केवल समुद्घात होता है सबके नहीं। इसका कारण यह है कि जब किसी केवली का आयुष्य कर्म कम एवं वेदनीय कर्म अधिक रह जाता है तब उनको सम करने के लिए उसके आत्म प्रदेश स्वतः ही शरीर से बाहर निकलते हैं और लोक में व्याप्त हो जाते हैं। उस स्थिति में समय के मान की अपेक्षा में अधिक रहा हुआ वेदनीय कर्म प्रदेश वेद्य होकर नष्ट हो जाता है। यह समुद्घात सिर्फ उनके होता है जिनका आयुष्य केवल ज्ञान होने के समय 6 माह से कम होता है।
इस समुद्घात का कालमान केवल आठ समय का होता है। प्रथम समय में दण्डाकार आत्मप्रेदश निकलते हैं जो ऊपर व नीचे लोकान्त तक चले जाते है। दूसरे समय में कपाटाकार अर्थात् उस दण्ड के दो पाश्र्व से निकलने वाले आत्म-प्रदेश पूर्व और पश्चिम में या उत्तर और दक्षिण में लोकान्त तक चले जाते हैं, जो कपाट के आकार से समझे जा सकते है। तीसरे समय में मन्थान के आकार में अवशिष्ट दो पाश्र्वों से निकलने वाले आत्म प्रदेश भी लोकान्त तक चले जाते हैं। चौथे समय में मन्थान के बीच का अन्तर प्रदेशों से भर जाता है। इस प्रकार उस समय लोक के प्रत्येक आकाश प्रदेश पर एक आत्म प्रदेश हो जाता है। ठीक इसके विपरीत क्रम रूप से आत्म प्रदेश अगले चार समयों में वापिस मूल शरीर में आ जाते हैं। इन आठ समयों में महा निर्जरा होती है। चैथे समय में जब सारे लोक में आत्म प्रदेश व्याप्त हुए होते हैं तब एक साथ जो कर्म दूर होते हैं और पाँचवे समय में आत्म-प्रदेशों के संकुचित हो जाने पर वे आत्म प्रदेशों से विलग हुए कर्म पुद्गल समस्त लोक में व्याप्त होने के कारण अचित्त महास्कन्ध नाम से पुकारे जाते हैं।
इस समुद्घात के पहले और आठवें समय में औदारिक काययोग, दूसरे, छट्ठे और सातवें समय में औदारिक मिश्र काय योग व तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में कार्मण काय योग रहता है। चौथे, पाँचवें और छट्ठे समय में जीव अनाहारक रहता है। केवल समुद्घात करने वालों में सात योग बाकी केवलियों में पाँच योग होते हैं। यह गुणस्थान शाश्वत है। दो करोड़ जीव इसमें हर समय मिलते हैं। उत्कृष्ट नव करोड़ भी मिल सकते हैं। इसकी स्थिति देशोन क्रोड़ पूर्व है।
इस गुणस्थान के अन्त में योग निरोध प्रारम्भ हो जाता है। योग निरोध का क्रम इस प्रकार है:- पहले स्थूल काय योग, फिर स्थूल वचन योग, फिर स्थूल मनोयोग, फिर सूक्ष्म मनोयोग, फिर सूक्ष्म वचन योग, फिर सूक्ष्म काय योग। सूक्ष्म काय योग तेरहवें गुणस्थान के अन्त तक रहता है। यहाँ पर सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति शुक्ल ध्यान होता है।
चौदहवाँ गुणस्थान
चौदहवाँ अयोगी केवली गुणस्थान है। यहाँ पर पूर्णतया आश्रव निरोध व संवर प्राप्ति होती है। कर्मों का बन्ध सर्वथा रूक जाता है। वीतरागी होने पर भी जो शुभ योग के द्वारा द्विसमयक स्थिति वाला सात वेदनीय बन्धन होता था वह भी अवरूद्ध हो जाता है। यहाँ आत्मा शैलेशी अवस्था को प्राप्त हो जाती है, अर्थात् मेरू की तरह निश्चल और निष्प्रकम्प अवस्था को प्राप्त हो जाती हैै। इस अवस्था में प्राणी सर्वथा अनाहारक रहता है।
यहाँ पर खाना-पीना, बोलना, चलना, धर्मोपदेश, प्रश्नोत्तर आदि शुभ यौगिक क्रियाओं का सर्वथा निरोध हो जाने तथा लेश्यारहित हो जाने पर भी चारों ही अघाति कर्म अवशिष्ट रहते हैं इससे वह संसारी व सशरीरी कहलाता है। इस अवस्था तक आत्मा के साथ औदारिक, तेजस और कार्मण ये तीनों शरीर लगे रहते हैं।
यहाँ पर यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जब शुभयोग यहाँ पर नहीं है तो फिर अवशिष्ट कर्मों को दूर करने वाला कौन होगा ? यदि शुभ योग है तो फिर पुण्य बन्ध तो होगा ही इस स्थिति में आत्मा अयोग और अबन्ध अवस्था को कैसे प्राप्त हो सकती है ?
उत्तर भी स्पष्ट है। यद्यपि वहाँ पर शुभयोग नहीं होता पर शुभयोग जन्य आत्मा का वेग वहाँ पर अवश्य रहता है। उसी के बल पर आत्मा कर्मों से सर्वथा मुक्त होती है।
इसे उदाहरणपूर्वक यों समझा जा सकता है कि - जैसे इंजिन के बिना डिब्बे चल नहीं सकते, फिर भी कहीं कहीं यह देखने को मिलता है कि इंजिन से ढकेला गया डिब्बा इंजिन के बिना भी कुछ दूर तक चलता रहता है, वहाँ इंजिन नहीं होता पर इंजिन के द्वारा प्रदत्त वेग होता है और उसी के बल पर वह चलता है। इसी तरह शुभयोग के बिना निर्जरा नहीं होती परन्तु चौदहवें गुणस्थान में शुभयोग न होने पर भी उससे उत्पन्न वेग से वहाँ निर्जरा तो होती है पर शुभयोग न होने के कारण पुण्यबन्ध नहीं हो पाता।
इस तरह इस थोड़े समय की अबन्ध अवस्था में रहकर जीव सम्पूर्ण कर्म दूर कर मोक्ष प्राप्त करता है। इसकी स्थिति पाँच हृस्व अक्षर उच्चारण जितनी होती है। सिद्ध होने एवं समस्त कर्म छूटने का समय एक ही होता है। इसीलिए जयाचार्य ने कहा है:-
’प्रथम समय ना सिद्ध चार कर्मां ना अंश खपावे।
चैथे ठाणे प्रथमोद्देशे बुद्धिवन्त न्याय मिलावे।।’
(झीणी चर्चा)
समस्त कर्मों से छूटना ही मोक्ष है। यह आत्मा की पूर्ण पवित्रता की स्थिति होती है। निर्जरा और मोक्ष में इतना ही अन्तर है कि निर्जरा आत्मा की अपूर्ण विशुद्धि है, जबकि मोक्ष पूर्ण विशुद्धि। निर्जरा के कारणभूत शुभोपयोग को भी निर्जरा कहा जाता है। पर वह औपचारिक निर्जरा होती है। यह गुणस्थान अशाश्वत है। यदि मिले तो एक साथ ग्रहण करने वाले 108 मिल सकते है।
गुणस्थानों की हेयोपादेयता
गुणस्थानों की हेयता तथा उपादेयता के विषय में जिज्ञासा हो सकती है अतः उस पर भी चिन्तन कर लेना यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा। अपेक्षा दृष्टि से इस प्रश्न के तीन उत्तर हो सकते है-
1. गुणस्थान सभी उपादेय हैं क्योंकि आत्मा के पवित्र गुणों के स्थान को गुणस्थान कहा जाता है। चैदह गुणस्थानों में प्रथम गुणस्थान सबसे अल्प गुण वाला है फिर भी आत्मा के न्यूनतम गुण की ही वह स्थिति है। गुण कभी हेय नहीं होता। राख कितनी ही क्यों न हो पर चिनगारी की अवज्ञा नहीं की जा सकती। अगले गुणस्थान में आत्मा की उज्जवलतर स्थितियाँ होती है, इसलिए आत्मोज्ज्वल्य की न्यूनतम से लेकर उच्चतम स्थिति तक भी सभी भूमिकाएँ उपादेय ही ठहरती है।
2. सभी गुणस्थान हेय हैं यह भी एक अपेक्षा से ठीक है। क्योंकि आत्मा की पूर्ण पवित्रता किसी भी गुणस्थान में नहीं होती। चौदहवें गुणस्थान में भी आत्मा के चार कर्म लगे रहते हैं। जिसमें आयुष्य के सिवा बाकी तीन कर्म अशुभ भी हो सकते है। मुक्ति महल की वह चाहे अन्तिम पेड़ी ही हो पर है तो सोपान ही, महल नहीं है। उसको पार करने से ही पूर्ण आत्मानन्द पाया जा सकता है, पहले नहीं। आत्मानन्द की पूर्णता के लिए सोपान को लांघना ही श्रेयस्कर है पर वहाँ टिके रहना नहीं।
3. पूर्व-पूर्व गुणस्थान हेय एवं उत्तर-उत्तर गुणस्थान उपादेय है। जैसे पाँचवे गुणस्थान वाले के लिए छठा उपादेय है और सातवें वाले के लिए हेय है। क्योंकि उत्तर गुणस्थानों में आत्मविशुद्धि बढती जाती है, एवं पूर्व गुणस्थानों में उत्तर की अपेक्षा से आत्म विशुद्धि की कमी होती हैं। अतः श्रावक को साधु बनना चाहिए, पर साधु को श्रावक नहीं क्योंकि पहले में आत्म गुणों की वृद्धि होती है एवं दूसरे में हानि। यह हेयोपादेय सम्बन्धी प्रश्न का अपेक्षा भेद से उत्तर है। वास्तव में तो जैसा कि ऊपर बताया गया है सभी गुणस्थान उपादेय हैं।
गुणस्थानों की अमरता
चौदह गुणस्थानों में तीन गुणस्थान अमर हैं। अर्थात् तीसरे, बारहवें तथा तेरहवें में कोई भी जीव आयुष्य पूरा नहीं करता। जयाचार्य ने कहा है-
“तीन गुण ठाणा अमर कह्या छे, तेरम बारम तीजो रे।”
(झीणी चर्चा)
गुणस्थानों में कर्मबन्ध
चौदह गुणस्थान में नवमें तक सात कर्मों का (आयुष्य छोड़ कर) निरन्तर बन्धन होता है। दसवें में (आयुष्य, मोह बिना) छह कर्मों का निरन्तर बन्धन होता है। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें में एक सात वेदनीय कर्म का बन्धन होता है। तीसरे गुणस्थान को छोड़कर सातवें तक आयुष्य का बन्धन होता है। आयुष्य का बन्धन एक भव में एक बार ही होता है। छठे में यदि आयुष्य कर्म का बन्धन प्रारम्भ किया हो तो सातवें में पूर्ण कर सकता है पर सातवें में आयुः बन्ध प्रारम्भ नहीं करता। जयाचार्य कहते है-
“आयु अबंध सातमां आगे बलि तीजो गिण लीज्यो रे।”
(झीणी चर्चा)
गुणस्थान में कर्मोदय
दसवें गुणस्थान तक आठों ही कर्मों का उदय रहता है। ग्यारहवें तथा बारहवें मे सात कर्मों का एवं तेरहवें चौदहवें में चार कर्मों का। ग्यारहवें तक मोह कर्म की सत्ता रहती है। बारहवें तक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं अंतराय की सत्ता रहती है तथा बाकी चार कर्मों - आयुष्य, नाम, गौत्र एवं अंतराय की सत्ता चौदहवें गुणस्थान तक रहती है।
गुणस्थान और भाव
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि कर्म दूर होने से होने वाली आत्मा की क्रमिक विशुद्धि का नाम गुणस्थान है। इनमें से प्रथम दस गुणस्थान क्षयोपशम भाव से प्राप्त होते हैं, ग्यारहवाँ उपशम भाव से, बारहवाँ, तेरहवाँ क्षायक भाव से एवं चौदहवाँ पारिणामिक भाव से। उतः प्रथम दस गुणस्थान क्षयोपशम भाव, ग्यारहवाँ उपशम भाव, बारहवाँ एवं तेरहवाँ क्षायिक भाव और चौदहवाँ पारिणामिक भाव कहलाता है। सम्यक्त्व की अपेक्षा से चतुर्थ गुणस्थान को उपशम एवं क्षायिक भाव भी कहा जा सकता है।
गुणस्थानवर्ती जीव और भाव
भेद विज्ञान से:- औदयिक भाव के 33, औपशमिक भाव के 8, क्षायिक भाव के 13, क्षायोपशमिक भाव के 32 भेद किए जाते है। वे यथाक्रम यों हैं:-
औदयिक भाव के 33 भेद- चार गति, छः काय, छः लेश्या, चार कषाय, तीन वेद, मिथ्यात्व, अव्रत, अमनस्कता, अज्ञानता, आहारता, संसारता, असिद्धता, अकेवलित्व, छद्मस्थता, सयोगिता।
औपशमिक भाव के 8 भेद - 1. उपशम क्रोध 2. उपशम मान, 3. उपशम माया, 4. उपशम लोभ, 5. उपशम राग, 6. उपशम द्वेष, 7. उपशम सम्यक्त्व, 8. उपशम चारित्र।
क्षायिक भाव के 13 भेद - 1. केवल ज्ञान, 2. केवल दर्शन, 3. आत्मिक सुख, 4. क्षायिक सम्यक्त्व, 5. क्षायिक चारित्र, 6. अटल अवगाहन, 7. अमूर्तिपन, 8. अगुरूलघुपन, 9. दान लब्धि 10. लाभ लब्धि, 11. भोग लब्धि, 12. उपभोग लब्धि, 13. वीर्य लब्धि।
क्षायोपशमिक भाव के 32 भेद -
ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से - 1. मति ज्ञान, 2. श्रुतज्ञान, 3. अवधि ज्ञान, 4. मनःपर्यव ज्ञान, 5. मति अज्ञान, 6. श्रुत अज्ञान, 7. विभंग अज्ञान, 8. भणन गुणन।
दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से - 1. श्रोत्रेन्द्रिय, 2. चक्षुरिन्द्रिय, 3. घ्राणेन्द्रिय, 4. रसनेन्द्रिय, 5. स्पर्शनेन्द्रिय, 6. चक्षु दर्शन, 7. अचक्षु दर्शन, 8. अवधि दर्शन।
मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से - 1. सामायिक चारित्र, 2. छेदोपस्थापनीय चारित्र, 3. परिहार विशुद्धि चारित्र, 4. सूक्ष्म संपराय चारित्र 5. देशविरति 6. सम्यक् दृष्टि 7. मिथ्या दृष्टि, 8. सम्यक् मिथ्या दृष्टि।
अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से - 1. दान लब्धि, 2. लाभ लब्धि, 3. भोग लब्धि, 4. उपभोग लब्धि, 5. वीर्य लब्धि, 6. बाल वीर्य, 7. पण्डित वीर्य, 8. बाल पण्डित वीर्य।
उदय एवं क्षय आठों कर्मों का होता है। उपशम केवल मोहकर्म का होता है। क्षयोपशम उपर्युक्त चार कर्मों का होता है।
विभिन्न गुणस्थानवर्ती जीवों में उपर्युक्त चारों- (उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम) भावों के कितने भेद पाए जाते हैं, तथा जीव भेद आदि बोल किस गुणस्थान में कितने पाते हैं इनको निम्नोक्त यन्त्र के द्वारा स्पष्टता से समझा जा सकता है। वह यन्त्र यों है:-
क्र.
|
औद
यिक |
औप
शमिक |
क्षा
यिक |
क्षायो
पशमिक |
जीव भेद
|
योग
|
उप योग
|
लेश्या
|
आ
त्मा |
दृष्टि
|
दंड क
|
पक्ष
|
1
|
33
|
0
|
0
|
19
|
14
|
13
|
6
|
6
|
6
|
मिथ्या
|
24
|
2
|
2
|
27
|
0
|
0
|
19
|
6
|
13
|
6
|
6
|
7
|
सम्यक
|
19
|
शुक्ल
|
3
|
27
|
0
|
0
|
19
|
1
|
10
|
6
|
6
|
6
|
मिश्र
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16
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शुक्ल
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4
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26
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1
|
1
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19
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2
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13
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6
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6
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7
|
सम्यक
|
16
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शुक्ल
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5
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24
|
1
|
1
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20
|
1
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12
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6
|
6
|
7
|
सम्यक
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2
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शुक्ल
|
6
|
22
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1
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1
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23
|
1
|
14
|
7
|
6
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8
| lE;d |
1
|
शुक्ल
|
7
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19
|
1
|
1
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23
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1
|
5
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7
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3
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8
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lE;d
|
1
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शुक्ल
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8
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17
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1
|
1
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21
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1
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5
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7
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1
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8
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lE;d
|
1
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शुक्ल
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9
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17
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1
|
1
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21
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1
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5
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7
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1
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8
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lE;d
|
1
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शुक्ल
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10
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11
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1
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1
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17
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1
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5
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7
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1
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8
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lE;d
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1
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शुक्ल
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11
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10
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2
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1
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19
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1
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5
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7
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1
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7
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lE;d~
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1
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शुक्ल
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12
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10
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0
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2
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19
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1
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5
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7
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1
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7
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1
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शुक्ल
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13
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7
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0
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9
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0
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1
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2
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2
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1
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7
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lE;d
|
1
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शुक्ल
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14
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4
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0
|
9
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0
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1
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2
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2
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0
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6
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lE;d
|
1
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शुक्ल
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(यन्त्र नं. 1)
मुक्ति:-
चौदहवाँ गुणस्थान छूटते ही आत्मा बिल्कुल कर्म रहित हो जाती है। कर्म रहित आत्मा ऋजु गति करती है वक्र गति नहीं। जहाँ मुक्ति हुई कि बस उसी सीध में लोक के मस्तक पर जा ठहरती है। सिद्धावस्था से पूर्व शरीर जितना आकाश घेरे रहता है, मुक्तावस्था में वह जीव उसके दो तिहाई आकाश को घेर कर रहता है।
कर्ममुक्ति होने से भी पूर्व शरीर की अपेक्षा से सिद्धों के आत्म प्रदेशों की अवगाहना में बहुत बड़ा अन्तर होता है। सिद्धों की जघन्य अवगाहना एक हाथ आठ आंगुल होता है। इसका कारण यह है कि सात हाथ से कम शरीर वाला सिद्ध नहीं होता। सात हाथ की अवगाहना वाला व्यक्ति जब उर्ध्व जानुओं में सिर झुकाकर ध्यान मुद्रा में बैठता है तब वह दो हाथ की अवगाहना वाला होता है वही आत्मा सिद्धावस्था मे दो तिहाई अवगाहना का रहता है, तब जघन्य अवगाहना वाला होता है। उत्कृष्ट 500 धनुष्य की अवगाहना वाला सिद्ध होता है और वह खड़ा-खड़ा सिद्ध होता है तब उत्कृष्ट अवगाहना वाला सिद्ध होता है। इसी प्रकार मध्य की समस्त अवगाहनाएं समझ लेनी चाहिए।
सिद्धों के रहने का स्थान पैंतालीस लक्ष योजन लम्बा-चैड़ा है। इसका कारण यह है कि मुक्त होने वाले जीव अढाई द्वीप में ही होते है, उनमें लाख योजन का जम्बूद्वीप है, उसके चारों तरफ द्विगुणित लवण समुद्र है, चारों ओर से दुगुना होने के कारण इनका सम्मिलित माप पूर्व से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण तक पाँच लाख योजन हो जाता है। उसके चारों ओर चार लक्ष योजन का धातकी खण्ड है इसे सम्मिलित करने पर तेरह लाख योजन क्षेत्र हो जाता है। उसके बाद आठ लाख योजन का कालोदधि है इसे मिलाने पर 25 लाख हो जाता है। उसके बाद पुष्कर द्वीप है जो सोलह लक्ष योजन का है। जिसके मध्योमध्य चारों और मनुषोत्तर पर्वत है, इस पर्वत के अन्दर मनुष्य रहते है, बाहर केवल तिर्यंच ही हैं।
अतः इसका आधा क्षेत्र सम्मिलित करने पर पैंतालिस लक्ष योजन क्षेत्र हो जाता है। इसे मनुष्य क्षेत्र कहते हैं। इसके बाहर मनुष्य नहीं है। अतः वहाँ से सिद्ध भी नहीं होते। जो अनन्त सिद्ध हैं या अनन्त और भी होंगे वे सारे यहीं समा जाऐंगे। जैसे- एक दीपक के प्रकाश में सैकड़ों दीपकों का प्रकाश समा जाता है, वैसे ही ज्योतिर्मय सिद्ध समाविष्ट हो जाते हैं। सिद्ध स्थान से आगे अलोक है। धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण वहां कोई नहीं जा सकता, क्योंकि धर्मास्तिकाय ही गति सहायक द्रव्य है, उसके अभाव में किसी भी जीव की गति नहीं हो सकती। अवगाहना की तरह पूर्वभव की अपेक्षा से सिद्धों के 15 भेद किए जाते हैं। वे इस प्रकार हैं:-
1. तीर्थ सिद्ध, 2. अतीर्थ सिद्ध, 3. तीर्थंकर सिद्ध, 4. अतीर्थंकर सिद्ध, 5. स्वलिंग सद्धि 6. अन्यलिंग सिद्ध 7. गृहलिंग सिद्ध, 8. स्त्रीलिंग सिद्ध, 9. पुरूषलिंग सिद्ध, 10. नपुंसकलिंग सिद्ध 11. प्रत्येक बुद्ध सिद्ध, 12. स्वयं बुद्ध सिद्ध, 13. बुद्ध बोधित सिद्ध, 14. एक सिद्ध, 15. अनेक सिद्ध।
इन 15 भेदों में से प्रत्येक सिद्ध में छह ही भेद पाते है इससे कम या अधिक नहीं पाते। भेदों में परस्पर अन्तर जरूर रहता है।
समय की अपेक्षा से सिद्धों के दो भेद किये जाते हैं- अनादि अनन्त तथा सादि अनन्त।
सिद्धावस्था प्राप्त होने पर आत्मा जन्म, मृत्यु, रोग, शोक, दुःख भय, जरा आदि से रहित हो जाती है उसके सुखों का न कभी क्षय होता है न कभी अन्त।
आचार्य श्री तुलसी ने सिद्ध स्तवन में कहा है कि
“अक्षय अरुज अनन्त अचल अज अवयाबाध कहाए
अजरामर पद अनुपम सम्पद तास अधीश सुहावे।”
यह सिद्धावस्था ही सबके लिए काम्य है। गुणस्थानों का क्रमारोहण भी इसीलिए है। सिद्धि साध्य है
और गुणस्थानों का क्रमिक आरोहरण उसका साधन। साध्य की सिद्धि के लिए साधन का ज्ञान महत्वपूर्ण होता है इसीलिए इस विषय पर यहाँ कुछ प्रकाश डाला गया है।
2 Comments
गुणस्थान की बहुत ही सुंदर मीमांसा। बहश्रुत परिषद के सदस्य मुनि श्री राजकरण जी के द्वारा की गई है।
ReplyDeleteVery clear and detailed explanation.
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